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मेरा परिचय

जिन्दगी
जिन्दगी
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अपना परिचय मैं तुम्हें किस तरह दूँ
कोई और भी भला कैसे देगा ?
क्या मैं जानती हूँ, मैं कहाँ से आई हूँ ,
कहाँ जाऊँगी ?
कैसे नापूंगी अपनी नियति –
जो फैली है
अन्जाने से अन्जाने तक
मैं तो एक मुसाफिर हूँ, चल रही निरंतर
वहाँ से वहाँ तक
मैं नहीं जानती कहाँ से कहाँ तक ?
और कब
जिंदगी से परे
अपना अतीत , अपना भविष्य
देखने, सुनने, जानने से परे
अवचेतन में
मैं हूँ अपना अद्र्शय –
मेरी स्थिती बिंदु एक बुलबुला है – काल का
एक शण, एक पल
यात्रा मेरी पूर्ण विश्राम रहित है |
मैं ही द्वन्द का समाहार हूँ ,
खुद के अलावा दूसरों का स्वागत करती हूँ |
पकड़ी जाती हूँ विरोधाभासों से
मेरा परिचय-पत्र झूलता है एकांत बरगद पर –
नहीं जिसमे कोई भी अक्षर |

कान्ता गोगिया

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