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तुम्हें मालूम है ….????

जिन्दगी
जिन्दगी
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तुम्हें मालूम है – बहुत पहले
बहुत-बहुत पहले
मैंने तुम्हें एक ख़त लिखा था
रीते मन के अवशेषों को
सर्द हवा में पिरो-पिरो
सूखे पत्तों की सरसराहट से
एक नन्हा सा ख्वाब चुरा कर
मैंने तुम्हें एक ख़त लिखा था |
कितनी सदियाँ गुजारी हैं
उसके जवाब के इंतज़ार में मैंने –
तुम्हें मालूम है ???
कितने पल छिन रीता मन भटका लिया
अनगिनत तूफानों की बस्ती में –
तुम्हें मालूम है ?
तुम्हें नहीं मालूम –
ठंडी हवा के आँचल में बंधा-बंधा मेरा ख़त
खंडित स्वपन को साथ लेकर
आज वापिस लौट आया है ,
बरसों भटक कर भी –
तुम्हारा पता नहीं मिला हवा को –
मेरा ख़त आज वापिस लौट आया है –
कहाँ ? किस पते पर भेजूं उसको अब
मुझे नहीं मालूम …
क्या तुम्हें मालूम है ?????????

कान्ता गोगिया

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