जिन्दगी
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मैं जिंदगी के हाशिये पर सिमट आई हूँ
और सोच रही हूँ –
अपने ही हाथों से लिखी-बताई जिंदगी की इबारत को
मगर क्या बात है कि कुछेक शब्दों के अर्थ को
आज तक नहीं समझ पाई मैं
जबकि उन शब्दों को मैंने ही जिया है |
यक़ीनन हम लोग
बिना अर्थ की जिंदगी कैसे जी लेते हैं ?
शब्दों को जी जाते हैं-
अपने आंसुओं की तरह,
बिना परिणाम जाने, बिना अर्थ को पहचाने |
कान्ता गोगिया
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