जिन्दगी
- 70 Posts
- 50 Comments
अनेकानेक बार
सुन कर, समझ कर भी
मन में पुनः पुनः
क्यों जाग्रत होती है
यह इच्छा –
तुम फिर कहो,
तुम कहो,
बार-बार कहो
कि तुम मेरे हो !
प्रेम की यह
कौन सी पराकाष्ठा है?
कि वह पुनः पुनः
उच्चारित होने का
आकांक्षी है !
प्रेम वस्तुतः
असहाय, असमर्थ है
वह अपने होने का
नित्य नवीन प्रमाण चाहता है
अपने इस दीन-करुण रूप में ही
प्रेम की सबलता है
क्योंकि प्रेम अपने हर रूप में
मात्र
प्रेम है !
– कान्ता गोगिया
Read Comments