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तुम मेरे हो(कांटेस्ट -प्रणय काव्य)

जिन्दगी
जिन्दगी
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अनेकानेक बार
सुन कर, समझ कर भी
मन में पुनः पुनः
क्यों जाग्रत होती है
यह इच्छा –
तुम फिर कहो,
तुम कहो,
बार-बार कहो
कि तुम मेरे हो !
प्रेम की यह
कौन सी पराकाष्ठा है?
कि वह पुनः पुनः
उच्चारित होने का
आकांक्षी है !
प्रेम वस्तुतः
असहाय, असमर्थ है
वह अपने होने का
नित्य नवीन प्रमाण चाहता है
अपने इस दीन-करुण रूप में ही
प्रेम की सबलता है
क्योंकि प्रेम अपने हर रूप में
मात्र
प्रेम है !

– कान्ता गोगिया

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